निवेदिता श्रीवास्तव गार्गी.
दहलीज
लौट आई उस दहलीज,
उसी पुराने चौखट पर,
इंतज़ार का शुरू सिलसिला करने,
चूड़ियों की खनक और
नूपुर की साज से आबद्ध करने,
रति सी अलसायी भोर में…!
उलझे लटों को संवारती ,
अपने आनन निहारती ।
पावन हुआ मन गंगाजल सा,
आंगन की तुलसी सूखी नहीं थी।
प्रात और सांझ के
आचमन से हरी हो चली थी,
ओसारे की बैठक और
अंगना की गुलाबी धूप
आज निखर रही थी….!
ठिठकते पांव चल पड़े
पाजेब की झनकार से
अंगनाइयां गूंज रही थी।
चूड़ियों की खनक और
लाज का घूंघट दबे पांव ,
तन मन में अपना आधिपत्य
जमा चुका था…!
फिर से कमरे की मद्धम रोशनी,
इनकार और इकरार की ,
प्यार और मनुहार की ,
शिकवे शिकायतों की झड़ियां
अपनों को स्पर्श कर रही थी…!
दर्पण कह रहा था कुछ हौले से,
कुछ नहीं एक सांझ ढली है,
अरसे बाद भी झुर्रियों में ,
कसावट आ रही थी…!