- टाटा स्टील, टाटा ग्रुप के पहले चेयरमैन सर दोराब जी टाटा की 164वीं जयंती पर विशेष
- पिता जेएन टाटा ने जो सपना देखा उसे बेटे दोराब जी टाटा ने शत प्रतिशत पूरा किया
जमशेदपुर.
देश को आर्थिक मामलों में फौलादी ताकत, आत्मनिर्भर बनाने के लिए जाने जाने वाले स्टील मैन सर दोराबजी टाटा ने अपने करियर की शुरूआत बतौर पत्रकार के रूप में की थी. आप सोच रहे होंगे कि भला एक स्टील उद्योग का संस्थापक, जिनका परिवार शुरू से व्यवसाय जगत में था, जिनके अपने कपड़ा का मिल था, जो ब्रिटिश काल के भारत में भी देश के संपन्न परिवार में से एक था, उस परिवार का बेटा भला पत्रकारिता क्यों करेगा? आपकी यह सोच और असमंजस बिल्कुल उचित है. टाटा स्टील के संस्थापक और टाटा संस के पहले चेयरमैन सर दोराब जी टाटा की 164वीं जयंती पर पढ़िए यह विशेष रिपोर्ट. जानिए आखिर एक कपड़ा व्यवसायी के बेटे को क्यों पत्रकारिता करनी पड़ी. आखिर उसने क्यों लोहा का कारखाना खोल दिया.
पिता के सपनों को पूरा करने के लिए सब कुछ लगा दिया
सर दोराब जी टाटा टाटा स्टील और टाटा ग्रुप के पहले चेयरमैन थे. सर दोराबजी टाटा ने टाटा समूह के संस्थापक और अपने पिता जमशेदजी टाटा के विजन को हकीकत में बदलने का काम किया. देश में लोहे का कारखाना लगाने के सपना देखने के साथ उसे हकीकत तक बदलने के लिए जेएन टाटा की पूरी तैयारी कर ली थी. कारखाना लगाने के लिए कालीमाटी (अब जमशेदपुर) के साकची गांव का चयन भी कर लिया गया था. लेकिन उसी दौरान 19 मई 1904 को जेएन टाटा की मृत्यु हो गयी. उनकी मृत्य के बाद बड़े बेटे दोराब के कंधे पर पिता के सपनों को पूरा करने की जिम्मेदारी आ गयी. पिता के इस महान सपने को पूरा करने के लिए बेटे ने भी अपना सब कुछ लगा दिया. दोराब जी ने पिता जेएन टाटा के लोहे का कारखाना लगाने का सपना ही पूरा नहीं किया किया बल्कि उन्होंने खेल और विभिन्न धर्मार्थ कार्यों का समर्थन करते हुए टाटा समूह को एक औद्योगिक दिग्गज के रूप में स्थापित किया. जेएन टाटा एक सुंदर, सुसज्जित, योजनाबद्ध तरीके से शहर बसाने का सपना भी देखे थे जहां उनके कर्मचारियों और बसने वाले नागरिकों को हर मूलभूत सुविधा मिल सके. दोराब जी टाटा ने पिता के इस सपने को भी पूरा किया. आज जमशेदपुर शहर और आसपास में जो भी नागरिक सुविधा टाटा मुहैया कराती है उसके पीछे टाटा के संस्थापक जेएन टाटा और उनके वंशजों की सामाजिक और महानतक भावना और सोच है.
कैम्ब्रिज से पढ़ा, बंबई लौट संत जेवियर कॉलेज से आर्ट्स में डिग्री ली
सर दोराबजी टाटा जमशेदजी नसरवानजी टाटा के बड़े बेटे थे. सर दोराबजी का जन्म 27 अगस्त, 1859 को हुआ था. उन्होंने बॉम्बे (अब मुंबई) में प्रोप्राइटरी हाई स्कूल में पढ़ाई पूरी की. 18 साल की उम्र में उन्होंने कैम्ब्रिज के गोनविले और कैयस कॉलेज में पढ़ाई की. इंग्लैंड में ही सर दोराबजी के मन में खेलों के प्रति प्रेम जगा. कैम्ब्रिज में उन्होंने खेलों में खुद को निपुण बनाया, क्रिकेट और फुटबॉल के लिए सम्मान जीते. उन्होंने अपने कॉलेज के लिए टेनिस भी खेला, वे एक विशेषज्ञ नाविक थे, कई स्प्रिंट स्पर्धाएं जीती और एक अच्छे घुड़सवार भी थे. वह 1879 में मुंबई (तब बंबई) लौट आए और सेंट जेवियर्स कॉलेज में दाखिला लिया, जहां उन्होंने आर्ट्स में स्नातक की डिग्री प्राप्त की.
पिता ने बेटे दोराब को व्यवसाय में न लाकर पत्रकारिता के अनुभव लेने की नसीहत दी
ब्रिटिश शासन काल में भारत में गिने चुने भारतीय ही सफल व्यवसायी थे. उसमें से एक जेएन टाटा थे. उनका अपना कपड़ा मिल था. पढ़ाई के बाद दोराबजी टाटा के पास अपने व्यवसाय को संभालने की जिम्मेदारी निश्चित थी. लेकिन जेएन टाटा ने ऐसा बिल्कुल नहीं किया. उन्होंने बेटे दोराबजी को पत्रकारिता में अनुभव लेने के लिए प्रोत्साहित किया. जेएन टाटा की इस सोच से आप समझ सकते हैं कि वे कितने दूरदृष्टा थे और वे किस तरह से अपने संतानों को हर क्षेत्र में महारत निपुण बनाने की सोच रखते थे. वे चाहते तो बेटे को सीधे कंपनी की कमान दे देते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. पिता की भावनाओं का बेटे ने भी सम्मान किया और दोराबजी टाटा पत्रकारिता के क्षेत्र में दो वर्षों तक काम किया. सर दोराबजी टाटा ने बांबे गजट (अब बंद) में काम किया और पत्रकारिता जगत की बारीकियों को समझा. कहा जाता है कि जो व्यक्ति पत्रकारिता के क्षेत्र का अनुभव प्राप्त कर लेता है वह किसी भी क्षेत्र के काम को समझ सकता है. शायद उस दौर की पत्रकारिता में भी ऐसा कुछ संभव होगा जिस कारण से जेएन टाटा ने बेटे को पत्रकारिता करने की नसीहत दी थी.
दो वर्षों तक पत्रकारिता करने के बाद पांडिचेरी में कपड़ा परियोजना स्थापित किया
जेएन टाटा ने दोराबजी को पत्रकारिता में अपना अनुभव बढ़ाने के बाद उन्हें पांडिचेरी (आज का पुडुचेरी) में एक कपड़ा परियोजना स्थापित करने का स्वतंत्र प्रभार दिया. इसके तुरंत बाद, सर दोराबजी को भारत के नागपुर में कंपनी की प्रमुख एम्प्रेस मिल्स की देखरेख के लिए भेजा गया. 38 साल की उम्र में उन्होंने पूर्ववर्ती मैसूर राज्य के शिक्षा महानिरीक्षक एचजे भाभा की बेटी मेहरबाई भाभा से शादी की.
उद्योग को गति दी
जमशेदजी के जीवन के तीन महान जुनून थे – भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापना, जो भारतीयों की भावी पीढ़ियों को देश के वैज्ञानिक विकास में पूर्ण रूप से भाग लेने के लिए तैयार करेगा. एक इस्पात संयंत्र, जो भारत की औद्योगिक साख स्थापित करेगा और बंबई के पास एक अग्रणी जलविद्युत संयंत्र की स्थापना.
सर दोराबजी की अपने पिता के विजन और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता इतनी मजबूत थी कि उन्होंने स्टील उद्यम, टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) को बचाने के लिए अपनी व्यक्तिगत संपत्ति दांव पर लगा दी, जैसा कि उस समय 1924 में यह संकट में फंस गयी थी. उनकी व्यावसायिक समझ और हिम्मत ने कंपनी को प्रथम विश्व युद्ध के बाद की अवधि में पांच गुना विस्तारीकरण कार्यक्रम शुरू करने में मदद की. पश्चिम में परिवहन और श्रम कठिनाइयों के साथ बढ़ती लागत ने सर दोराबजी की गणना को बिगाड़ दिया. लगभग इसी समय, टिस्को के सबसे बड़े पिग आयरन ग्राहक जापान भूकंप की चपेट में आ गया और स्टील की कीमतों में गिरावट आ गयी.
एक समय ऐसा आया जब उनके पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. सर दोराबजी ने ऋण प्राप्त करने के लिए अपनी पूरी निजी संपत्ति, लगभग एक करोड़ रुपये और प्रसिद्ध जुबली डायमंड सहित अपनी पत्नी के निजी आभूषण गिरवी रख दिए. टिस्को को कई लोगों का समर्थन मिला और वह संकट से बच गया.
सर दोराबजी की टिस्को के प्रति निस्वार्थता और समर्पण टाटा स्टील के प्रबंधन और कर्मचारियों की हर पीढ़ी में व्याप्त है. कंपनी वैश्विक स्तर पर सबसे सम्मानित और मूल्यवान स्टील कंपनी बनने की आकांक्षा रखती है जबकि मूल्यांकन का आकलन करने के लिए मेट्रिक्स हैं, सम्मान अमूर्त है हालांकि, छोटे-छोटे कदम उठाए जा सकते हैं जो कुल मिलाकर मूल्य में वृद्धि कर सकते हैं, और संगठन को उस दिशा में ले जा सकते हैं जिस दिशा में वह जाना चाहता है. सर दोराबजी जैसे लीडर्स की दूरदर्शिता के आधार पर, टाटा स्टील ने एक ऐसी संस्कृति स्थापित की है जिसमें छोटे सुधारों को संस्थागत बनाया जाता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने सुनिश्चित किया है कि सही काम करने की यह संस्कृति संगठन के हर कोने में व्याप्त हो.
खेलों को प्रोत्साहन
सर दोराबजी को खेल से गहरा लगाव था, उन्होंने अपनी युवावस्था में विभिन्न खेलों में हाथ आजमाया और बाद में, भारतीय ओलंपिक संघ के एक मजबूत संरक्षक और समर्थक बन गए. वास्तव में भारत ने 1920 में एंटवर्प में ओलंपिक खेलों में अपनी भागीदारी का श्रेय सर दोराबजी को दिया है. भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 1924 के पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले भारतीय दल को वित्तपोषित किया. वह अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के सदस्य भी थे.
सर दोराबजी ने देश में खेल प्रतिभाओं की तलाश की. उन्होंने यंग मेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के तत्कालीन निदेशक को देश का दौरा करने और भारत के लोगों को ओलंपिक के महत्व के बारे में बताने की व्यवस्था की. उन्होंने बॉम्बे में अन्य संस्थानों के अलावा, विलिंग्डन स्पोर्ट्स क्लब, पारसी जिमखाना, हाई स्कूल एथलेटिक एसोसिएशन और बॉम्बे प्रेसीडेंसी ओलंपिक गेम्स एसोसिएशन की स्थापना में मदद की.
उनकी विरासत से प्रेरित होकर, टाटा स्टील भारतीय खेलों को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है। कंपनी ने फुटबॉल, तीरंदाजी, एथलेटिक्स, हॉकी और स्पोर्ट्स क्लाइंबिंग के लिए अकादमियों की स्थापना की है – जो सभी खेलों में प्रतिभा का पोषण करती है।
लोगों के लिए समर्पित एक ट्रस्ट
सर दोराबजी की सबसे मूल्यवान विरासतों में एक बड़े ट्रस्ट की स्थापना थी, जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति, यहां तक कि मोती जड़ित टाईपिन भी दे दी. अपने पिता और भाई की तरह, उनका मानना था कि धन का रचनात्मक उपयोग किया जाना चाहिए. अपनी पत्नी की मृत्यु के एक साल से भी कम समय के बाद, सर दोराबजी ने अपनी सारी संपत्ति एक ट्रस्ट में डाल दी, जिसका उपयोग – “बिना किसी स्थान, राष्ट्रीयता या धर्म के भेदभाव के” – सीखने और अनुसंधान की उन्नति, संकट से राहत और अन्य धर्मार्थ उद्देश्य वाले कार्यों के लिए किया जाना था. इसी दृष्टि से सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट का जन्म हुआ.
सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टियों को उनकी ज़मीन, शेयर, प्रतिभूतियां और आभूषण, जिनमें शानदार जुबिली हीरा भी शामिल था, बेचने का अधिकार था, लेकिन टाटा संस में सर दोराबजी के पास जो शेयर थे. उन्हें वापस लेने की अनुमति नहीं थी. ट्रस्ट के माध्यम से, उन्होंने उस मूल फर्म की अखंडता सुनिश्चित करने की कोशिश की जिसे उनके पिता, उन्होंने और आरडी टाटा ने 1887 में स्थापित किया था.
सर दोराबजी ने अपनी पत्नी की स्मृति में एक ट्रस्ट, लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट भी स्थापित किया, जिसे उन्होंने ल्यूकेमिया में अनुसंधान के लिए एक कोष प्रदान किया. लेडी मेहरबाई डी टाटा एजुकेशन ट्रस्ट का गठन स्वच्छता, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण में महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए एक छोटे ट्रस्ट के रूप में किया गया था.
11 अप्रैल, 1932 को सर दोराबजी अन्य चीजों के अलावा, इंग्लैंड में अपनी पत्नी की कब्र पर जाने की उम्मीद में यूरोप के लिए रवाना हुए. इसी यात्रा के दौरान तीन जून 1932 को जर्मनी के बैड किसेनजेन में उनकी मृत्यु हो गई. कुछ दिनों बाद, लगभग उनकी पत्नी की मृत्यु के एक साल होने पर उन्हें इंग्लैंड के ब्रुकवुड कब्रिस्तान में उनके बगल में दफनाया गया.
“सर दोराबजी टाटा के नक्शेकदम पर चलते हुए टाटा स्टील ने अपने सीएसआर कार्यक्रमों के माध्यम से वित्त वर्ष 2023 में 31.5 लाख लोगों के जीवन को प्रभावित किया है. 100 से अधिक ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को शामिल करने के बाद टाटा स्टील का लक्ष्य 2025 तक कार्यस्थल में 25 प्रतिशत विविधता हासिल करना है.“
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