राकेश पांडेय, जमशेदपुर.
मन में रोष लिए एक दिन, काल पहुंचा द्रोण के पास।
भाव-भंगिमा देखकर गुरु, पुछे आने का कारण खास,?
बोल पड़ा समय उनसे, ऐसा आपने काम किया।
समस्त गुरु जातियों का, क्यों बदनाम किया?
शिक्षा दिया नहीं जिसे, उसका अंगूठा क्यों दान लिया।
आपके इस कृत्य को लोग, जातीय हिंसा मान लिया।
आदिवासी शुद्र एकलव्य का, अभ्यास जब सटीक था।
भला शिक्षा से वंचित शिष्य का, अंगूठा लेना क्या ठीक था?
अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना, माना आपकी प्रतीज्ञा थी।
इसके लिए दूसरे का प्रतिभा हनन, किसकी आज्ञा थी?
आज जातीय राजनीति के दलदल में, हर कोई आपको कोस रहा।
आपके उस कृत्य से, आदिवासी ओ शुद्र समुदाय में, खूब भर रोष रहा।
हे गुरु श्रेष्ठ! है कुछ जबाब आपके पास, मेरे इन प्रश्नों का?
मनुवादी मानसिकता में,क्या जगह नहीं दलितों के जश्नों का?
आपके गुरु दक्षिणा के कारण, आज गुरुओं पर संदेह है?
हे आचार्य! जबकि गुरु का कर्तव्य तो, सदा से विदेह है।
मुस्कुराकर द्रोणाचार्य बोले, तुमने तो हर युग को देखा है।
तुम्हें तो पता होगा संसार में, संबंधों की भी रेखा है।
आज तुमने धरती पर उठने वाली, जीतने भी प्रश्न सुनाये हैं।
हे समय चक्र, सबका उत्तर हमने कितनी बार बतलाये हैं।
संसार में आज पढ़ना लिखना, होता थोपी दृष्टि से।
कहां आज सीखता लोग, पोथी पत्रा और सृष्टि से।
क्या देखा है कभी तुमने, लता में फले आम को?
खुली हवा में सांस लेते, देखा है कभी गुलाम को?
प्रश्न उत्पन्न करने वाली स्थितियां, परिस्थिति जन्य होती है।
वसुधा वही पल्लवित पुष्पित होता, जो कृति बोती है।।
राजा हिरण्य धनु का पुत्र था, एकलव्य जो चर्चित है।
अभिद्युमन था नाम उसका, जो आदिवासी शुद्र न वंचित है।
अंगूठा लेना उसकी प्राप्य शिक्षा को, मान देना था।
चोरी किए गए विद्या का वह , प्रमाण देना था।
अंगूठा लेने का मतलब सबने, अंगूठा कटवाना मान लिया।
उसी तरह उसे जंगल में रहने से, लोगों ने भिल जान लिया।
हे समय जाकर कहना, मैंने किसी की प्रतिभा नहीं हनन किया।
मेरे ही बताए विद्या से वह, धनु में नव शैली का सृजन किया।
आज संपूर्ण संसार में, तीरंदाजी हेतु अंगूठा का प्रयोग नहीं होता।
अंगूठा न लिया होता तो, क्या इस शैली का उपयोग होता?
अर्जुन बेसक मुझे प्रिय था, एकलव्य और कर्ण से।
मगर इसका मतलब कुछ नहीं था, जाति और वर्ण से।
रही बात मुझे कोसने वाले की, तो वे सब राजनीतिक मोहरे हैं।
स्वार्थ हेतु समाज खंडित करने वाले का, चरित्र दोहरे हैं।
अंगूठा देकर जब एकलव्य को ही, नहीं कुछ मलाल है।
तो फिर गुरुओं पर संदेह का, कहां सवाल है?
गुरु सृष्टि के आरंभ से आज तक, हमेशा से विदेह है।
उसे तो बस शिष्य की लगन ओ निष्ठा से स्नेह है।
हे कालचक्र सुनो, मैं एक बात बतलाता हूं।
अक्सर जिसे मैं, अपने शिष्यों को सुनाता हूं।
जिसको जीवन का मूल्य नहीं, ना हीं कुछ करना है।
उसका कर्म सदैव समाज में, विष ही भरना है ।।
कर्म करने वाले सर्वस्व देकर, संसार में कुछ कर जाते हैं।
बाकी कमियां ढूंढने वाले, जाति वर्ग में फंस मर जाते हैं।।
सुनकर गुरु की बातें, समय हो गया संतुष्ट।
द्रोण के प्रति उसके भाव, हो गये संपुष्ट।।
हांथ जोड़ सिर नाई कर , आ चढ़ा अपने रथ पर।
तीव्र गति से चल पड़ा, पुनः अपने पथ पर।।
नोट : राकेश पांडेय जमशेदपुर ग्रेजुएट कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं साथ ही वे एक रंगकर्मी और कवि, लेखक है.