निवेदिता श्रीवास्तव “गार्गी”.
कोरा कागज
उस कोरे कागज पर ,
अपने मन की अभिव्यक्ति
लिखती रही ,
कभी उसने पढ़ी कभी ,
अनमने भाव से लगे !
मुझे उस कोरा कागज को ,
इस तरह देखना गवारा न था,
मैंने हर हाल में उसे ,
पूर्ण करने की ठानी थी,
इस बात से न हार मानी थी!
एक काविश की तरह उसे परखा,
फिर, मैंने स्पर्श किया,
उसमें एहसास जागृत कर ,
जज्बात लिखा,
इस तरह उसे शब्द प्रेम हुआ!
धीरे धीरे सुंदर शब्दों की,
कतारें बढ़ाकर उसे पढ़ने की ,
आदत डाली ,
— फिर उसकी आंखे तलाशने लगीं,
और मेरी अभिव्यक्ति ,
तराशती हुई आगे बढ़ी!!
मैं लिख रही थी,
वो जागृत हो रहा था,
वो पूर्णता की ओर बढ़ चला …
मैं अर्ध विराम सी ठहर गई!
अब वो सम्पूर्ण था।
मैं अर्द्ध और अवसान को ,
लिख न सकी ,
__ और वो कोरा कागज ,
कोरा ही रहा………..!!
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