अजय मुस्कान, जमशेदपुर.
“मैं… कल्पना तुम उड़ान प्रिये …!!”
चलो प्रिये !
मिलकर पतंग उड़ाते हैं…!
धरा तो अपना है,
थोड़ा गगन में लहराते हैं..!!
चलो प्रिये !
मिलकर पतंग उड़ाते हैं…!!
हवा कुछ तेज़ है,
देता कुछ सन्देश है..!
थामे रखना तुम डोर, प्रिये !
वरना, सब शेष है..!!
मैं हूं कल्पना
तुम उड़ान प्रिये …!!
कुछ सतरंगी,
कुछ अतरंगी,
जीवन के अरमान प्रिये..!
संग संग जीते,
संग संग मरते
फिर कैसा, व्यवधान प्रिये..!
आओ छूं लूँ
आसमान प्रिये….!!
सुनो !
यह डोर बंधन नहीं
प्यार है..!
सीमा नहीं
अपना विस्तार है..!!
उम्मीद का तुम
अभिसार प्रिये..!
थक जाऊँ
जो जीवन पथ पर
ऊर्जित करना,
होगा आभार, प्रिये..!!
तुम हो तो विश्वास मेरा
हर दिन त्योहार मेरा !!
चलो फिर,
खुद को आज़माते हैं..!
दूर गगन बहुत, छू कर आते हैं!!
धरा तो अपना है,
थोड़ा गगन में लहराते हैं..!!
चलो प्रिये !
मिलकर पतंग उड़ाते हैं…!!
चलो प्रिये !
मिलकर पतंग उड़ाते हैं…!!