बुद्ध के देश में, पार्ट वन
– बोधगया से लौट कर वरिष्ठ पत्रकार, समाजसेवी अन्नी अमृता की कलम से – बोधगया की सुबह और अद्भुत शांति
अन्नी अमृता, बोधगया/जमशेदपुर.
देश के विभिन्न स्टेशनों पर प्रयागराज जाने वाले जनसैलाब और उससे उपजे हालातों के बीच बिना किसी तय कार्यक्रम के अचानक बोधगया जाने की योजना बन गई और मेरी पूर्व सहयोगी के साथ मैं बोधगया पहुंच गई..हालांकि रांची से गया स्टेशन पहुंचना कोई आसान बात न थी क्योंकि गया स्टेशन पर भी कुंभ जाने वाली या पटना,यूपी जाने वाली ट्रेनों को पकड़ने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा था.रांची में प्रशासन मुस्तैद था,आरपीएफ के जवानों ने पूरी तन्मयता से ड्यूटी निभाते हुए बगैर टिकट किसी को स्टेशन पर प्रवेश होने ही नहीं दिया.मगर, गया में ऐसा नहीं दिखा..काफी सालों से बोधगया जाकर शांति के कुछ पल बिताने की इच्छा थी जो हो नहीं पा रही थी.सोचा न था कि जब योजना बनेगी तब रेलवे के रूट में यह संघर्ष होगा.खैर अचानक बने प्लान के फलस्वरुप हमलोग गया स्टेशन पर उतरकर फिर ऑटो पकड़कर बोधगया पहुंच ही गए.
बोधगया पहुंचते -पहुंचते पौने दस बज चुके थे..खाने पीने के रेस्तरां अब बंद ही होनेवाले थे..पहले से बुक एक साधारण से होटल में हमने अपने सामान रखे और तुरंत बाहर निकलकर एक होटल में खाना ऑर्डर किया.सड़कें शांत हो चली थी, मगर डर जैसा कुछ महसूस नहीं हुआ. हम दोनों महिलाएं आराम से निश्चिंत होकर खा -पीकर आराम करने होटल चलीं गईं.साधारण सा दिखनेवाला होटल निहायत ही असाधारण था.रुम का स्पेस अच्छा खासा था,बाथरुम और चादर-तकिया-तौलिया वगैरह एकदम साफ सुथरा था.इतना ही नहीं एक बालकनी भी थी जहां से महाबोधि मंदिर का ऊपरी हिस्सा साफ नजर आ रहा था.
सुबह एक सुकूनदायक ध्वनि से नींद खुली जो होटल के बगल में बने एक बौद्ध मठ से आ रही थी.कोई लाउडस्पीकर नहीं, बल्कि एक अद्भुत वाद्ययंत्र की ध्वनि सुनाई दे रही थी जिसे लकड़ी की छड़ियों का उपयोग करके बजाया जाता है.यह पल एक ऐसा सुकून दे रहा था जिसकी मन को हमेशा जरुरत रहती है.खासकर आज के भागदौड़ की जिंदगी में यह जरुरी है कि ऐसे पल इंसान बिताए.
सुकूनदायक सुबह में होटल की बालकनी से महाबोधि मंदिर के ऊपरी हिस्से की झलक देखकर प्रफुल्लित मन से तैयार होकर हमलोग महाबोधि मंदिर की तरफ निकले जो हमारे होटल से एक किलोमीटर के दायरे में था.मंदिर जाने से पहले एक थाई होटल में नाश्ता करने बैठे.वहां पता चला कि विभिन्न देशों के बौद्ध धर्मावलंबी यहां आते रहते हैं.ऐसे में यहां शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के व्यंजन मिलते हैं.दक्षिण पूर्व के देशों चीन, जापान, कंबोडिया, थाईलैंड वगैरह के बौद्ध धर्मावलंबी बहुतायत में यहां नजर आए.खास बात यह थी कि सभी अपनी भाषाओं में बात कर रहे थे.कोई भी अंग्रेजी भाषा का उपयोग नहीं कर रहा था.अपनी मातृभाषा के साथ अगाथ प्रेम यहां साफ झलक रहा था.रेस्टोरेंट संचालक शियाम ने हमारा काफी स्वागत किया.कहा कि किसी भी प्रकार की दिक्कत होने पर उनका नाम ले लेना है.उनका अपनापन दिल को छू गया..चारों तरफ की vibes ऐसी थी कि मानो हमलोग थाईलैंड में ही हों..शियाम के साथ हमलोगों की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी.खैर, फिर आने का आश्वासन देकर हमलोग महाबोधि मंदिर के लिए पैदल ही निकल पड़े.रास्ते में भगवान बुद्भ की मूर्ति और अन्य आकर्षण सामानों और कपड़ों से सजी दुकानें बरबस ही आकर्षित कर रही थीं.
तब हमें पता नहीं था कि आगे किस अनोखे शख्स से मुलाकात होने वाली है..साथ ही मेरी एक छोटी सी मुराद आश्चर्यजनक तरीके से पूरी होनेवाली थी.
शेष-अगले अंक में
नोट : यह लेख पूरी तरह से लेखक के यात्रा अनुभव और उनके निजी विचारों पर आधारित है.